ये जो आज मेरे हक़ की रोटियां खाये जा रहे हैं sad poem
Sad Poem
ये जो आज मेरे हक़ की रोटियां खाये जा रहे हैं
ये अपने ही जख्मों को सजाये जा रहे हैं
बेवजय लोगों को रुला के
अपने लिए आंसू बनाये जा रहे हैं
दूसरों की गल्तियों पे मुस्कुराये जा रहे हैं
अपने तमाम चूतियाफे को छुपाये जा रहे हैं
पिछवाड़े से कुर्सियाँ खिसक ना जाये
ऐसी तमाम तिकड़म-बाज़ी लगाए जा रहे हैं
मैं बड़ा तुम छोटे ये समझाए जा रहे हैं
दो कौड़ी के सपने दिखाए जा रहे हैं
मैं बज़बूत तो बन ही जाऊँगा
मेरी नज़रों में ये खुद को गिराए जा रहे हैं
“ये जो आज मेरे हक़ की रोटियां खाये जा रहे हैं sad poem”
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